डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
संपादकीय आलेख
शीर्षक:
"जातीय जनगणना: सामाजिक न्याय की ओर या सामाजिक विघटन की राह?"
लेखक: डॉ. राघवेंद्र मिश्र
भारत एक बहुजातीय, बहुभाषीय, और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है, जिसकी आत्मा “एकता में अनेकता” की अवधारणा से पोषित होती रही है। परंतु आज जातीय जनगणना की माँगें जिस गति और राजनीतिक समर्थन के साथ उठ रही हैं, वह केवल आंकड़ों के संग्रह की प्रक्रिया नहीं, बल्कि समाज के ताने-बाने को दोबारा औपनिवेशिक खांचों में बाँधने का प्रयास बनता जा रहा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
ब्रिटिश शासनकाल में 1871 से प्रारंभ हुई जातीय जनगणना की परंपरा ने समाज को ‘जाति’ के स्थायी वर्गों में विभाजित कर दिया। 1931 की जनगणना आखिरी बार थी जब विस्तृत जातीय आंकड़े प्रकाशित हुए। रीस्ले जैसे अफसरों ने जातियों को नस्ल और शारीरिक विशेषताओं से जोड़कर सामाजिक ऊँच-नीच की एक कृत्रिम और कठोर व्यवस्था थोप दी। यह “फूट डालो और राज करो” की स्पष्ट रणनीति थी।
वर्तमान भारत के संदर्भ में संभावित हानियाँ:
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सामाजिक विघटन और पहचान की राजनीति:
जातीय जनगणना से राजनीतिक दलों को समाज को विभाजित करने का औपचारिक औजार मिल जाता है। टिकट वितरण, घोषणापत्र और नीति निर्माण जातिगत आंकड़ों पर केंद्रित होने लगते हैं, जिससे 'भारतीय नागरिक' की पहचान दब जाती है और 'जाति आधारित मतदाता' उभरता है। -
सनातन संस्कृति के विरुद्ध:
भगवद्गीता में वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म पर आधारित है (चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः)। परंतु जातीय जनगणना इस लचीले दर्शन को जन्म आधारित जातियों में सीमित कर देती है, जिससे सांस्कृतिक एकात्मता खंडित होती है। -
शिक्षा प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव:
विश्वविद्यालयों में जातिगत ध्रुवीकरण और छात्र संगठनों में वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति पहले ही देखी जा रही है। जातीय आंकड़े सामने आने पर आरक्षण की माँगें और विरोध-प्रतिक्रिया बढ़ सकती हैं, जिससे शिक्षण संस्थानों का वातावरण कटु हो सकता है। -
Merit और आर्थिक आधार की उपेक्षा:
नई शिक्षा नीति (2020) और नीति आयोग आर्थिक न्याय एवं कौशल आधारित विकास की बात करते हैं, लेकिन जातीय आंकड़ों के राजनीतिक दुरुपयोग से प्रतिभाशाली किनारे हो सकते हैं और समाज में नई असमानता जन्म ले सकती है। -
पीढ़ियों में अपराधबोध और प्रतिशोध:
इतिहास के अन्याय का बोझ अगर आज की पीढ़ियों पर लादा जाएगा, तो समाज दो वर्गों में बँट सकता है — एक अपराधबोध से ग्रस्त और दूसरा प्रतिशोध से प्रेरित। इससे सामाजिक समरसता असंभव हो जाएगी।
क्या यह सामाजिक न्याय का मार्ग है?
निश्चित ही समाज में पिछड़ों के उत्थान के लिए योजनाएँ बननी चाहिए, परंतु उनकी नींव जाति नहीं, बल्कि आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक जरूरतों पर आधारित होनी चाहिए। वरना जातीय जनगणना एक ऐसी आग बन सकती है, जिसमें सामाजिक समरसता की सारी पूँजी जलकर राख हो जाएगी।
अतः भारत को यदि 21वीं सदी में ज्ञान, विज्ञान, और नवाचार का अग्रणी बनना है, तो उसे पहचान की नहीं, परिचय की राजनीति अपनानी होगी — जहाँ हर नागरिक का मूल्यांकन उसके कर्म, योग्यता और योगदान से हो, न कि उसकी जाति से।
@Dr. Raghavendra Mishra
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