Tuesday 19 December 2017

   आदि शंकराचार्यः चलचित्र का नाट्यशास्त्रीय अध्ययन (अभिनय के विशेष संदर्भ में)
      RAGHAVENDRA  MISHRA , RESEARCH  SCHOLAR (M.PHIL),SCSS, JNU, NEW DELHI.
भूमिका - नाट्योत्पत्ति के सम्बन्ध में महामुनि भरत ने लिखा है कि पितामह ब्रह्म ने चारों वेदों से सार संकलन कर पंचम वेद के रुप में नाट्यवेद का निर्माण किया। उस नाट्यवेद के लिए उन्होने ऋग्वेद से पाठ्य (संवाद), सामवेद से गीत (संगीत) , यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस का संग्रह किया।
इस आधार पर चारों वेद नाट्यशास्त्र के उपजीवी है।
     जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च।
                     यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि॥ (नाट्यशास्त्र १.१७)
आधुनिक चिन्तक वैदिक संवाद सूक्तों के माध्यम से नाट्योत्पत्ति विषयक चिन्तन करते हैं, और इसी को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । क्योंकि संवाद नाट्य की वह विधा है जो अभिनय की एक अनिवार्य आवश्कता की पूर्ति करता है । ऋग्वेद में ऐसे अनेक सूक्त विद्यमान हैं जो संवाद सूक्त कहे जाते हैं । डॉ कीथ ने उन संवादों को आख्यान कहा है। संवाद सूक्त लगभग १५ है। कुछ महत्त्वपूर्ण संवाद सूक्त अधोलिखित हैं -
 यम-यमी संवाद सूक्त (१०.१०), पुरुरवा-उर्वशी संवाद सूक्त (१०.९५), इन्द्र-मरुत संवाद सूक्त(.६५.७०), विश्वामित्र-नदी सम्वाद सूक्त (.३३), इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि संवाद सूक्त(१०.८६), अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद सूक्त (.१७९) आदि प्रमुख है।
अतःवैदिककालीन समाज में ऋषिगण संवाद सूक्तों का एवं कर्मकाण्डो का अभिनय किया करते थे । शनैः शनैः यही नाटक के रूप में परिणत हो गया और जनमानस के मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन का साधन हो गया। संस्कृत नाटकों का मंचन इसी का फल रहा है, जो बाद में बहुत ही व्यापक रुप ले लिया । जनमानस के ज्ञानवर्धन और मनोरंजन में कवियों ने भी बहुत साथ दिया। जैसा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है । समाज में जो भी कुछ होता था, कवियों ने उसे नाटकीय रूप देकर और अभिनय के माध्यम से जनमानस तक पहुँचाया और मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन कराया। इस प्रकार समाज में परिणति आती रही, लोगों की रुचि बदलती रही, नये-नये आविष्कार एवं प्रयोग नाटक पर हुए और एक युग ऐसा आया कि नाटक चलचित्र के रूप में परिणत हो गया, और चलचित्र समाज का दर्पण हो गया। ७ जुलाई १८९६ मुंबई के वाटसन होटल में शाम ६ बजे फ्रांस निवासी ल्यूमियर बंधु (आगस्ट और लुई) ने अपने छायाचित्रों का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया। यह फिल्म लगभग १७ मिटर लम्बी थी, जिसकी अवधि १/२ घंटा थी। हरिश्चन्द्र सखाराम भाटवडेकर उर्फ सावेदादा ने १८९९ में विदेशी फिल्मों के साथ २ अपनी भारतीय फिल्म प्रदर्शित किया। जिनका नाम था . मसलमैन पुंडलिक दादा और कृष्णा नाह्वी की कुश्ती ,. सर्कस के बन्दर ।
धुंडिराज गोविन्द फालके यानी दादा साहेब फाल्के नेराजा हरिश्चन्द्रनामक प्रथम सचल फिल्म (चलचित्र) बनाया । यानी motion picture इसके पहले अचल फिल्में या still photography को जोडकर दिखाया जाता था,यह फिल्म ३ मई १९१३ को मुम्बई के कोरोनेशन थियेटर में प्रारम्भ हुयी। सबसे अधिक २३ दिन तक चलने वाली पहली फिल्म बनी इसी प्रकार मोहिनी, भस्मासुर ,सत्यवान् सावित्री आदि फिल्में बनायी और खूब चली ।
    इसी प्रकार शनैः शनैः समाज बदलता गया और अब नये अविष्कार एवं प्रयोग हुये जिससे एक और नये युग का सूत्रपात हुआ । आर्देशिर एम.इरानी ने प्रथम सवाक् फिल्मआलमरा” (१९३१)में भारतीय फिल्म बनाई। उसके बाद किसान कन्या, १९३७ । इसी प्रकार से शनैः- शनैः समय गुजरता गया औ संस्कृत  के नाटकों, महाकाव्यों आदि ग्रन्थों का सहारा लेकर हिन्दी,अंग्रेजी,तमिल, आदि भाषाओं में फिल्में बनने लगी और हिन्दी सिनेमा अपने कारणभूत गर्भभाषा को छोडकर  स्वर्णिम युग तक पहुँच गया और फिल्मों में संस्कृत  भाषा को स्थान न देकर भाषा और भारत की आत्मा की उपेक्षा होने लगी।
     इस प्रकार से धीरे-धीरे समय गुजरता गया और अब समय आता है भारतीय सिनेमा के आत्मीयता का । जिस भाषा , जिस शास्त्र से सबकुछ सीखा गया और उसका प्रयोग किया गया और अभी भी प्रयोग हो रहे हैं । परन्तु उस मां  रूपी जगत जननी संस्कत भाषा की उपेक्षा उसी की धरा पर हो रहा है परन्तु कब तक? कोई तो होगा,जो मां के आंचल में आयेगा । वह थेदक्षिण भारत के g.v. Iyer महोदय गणपति वेंकटरामा अय्यर (g.v.Iyer) महोदय ने आदि शंकराचार्य: संस्कृत भाषा में १९८३ में पहली फिल्म बनाई जो २ घण्टे ४० मिनट की फिल्म थी
वास्तव में बात यह थी कि १९८०-९० का एक दशक  bio-pic  फिल्म का था । इसी समय NSD (National school of Drama) और पूना संस्थान आदि स्थानों पर एवं थियेटरों में संस्कृत जानने वाले नायकों को बुलाकर  अभिनय कराया जाता था संस्कृत के नाटकों का मंचन होता था । आदि शंकराचार्य: फिल्म को G.V.Iyer ने direct किया एवं National Film Development Corporation of India ने produce किया था। इस फिल्म में प्रमुख नायक-सर्वदमन बनर्जी आदि शंकरचार्य, भारत भूषण (शिवगुरू), श्रीनिवास प्रभु (प्रज्ञान), मंजुनाथ भट्ट (पद्मपाद), गोपाल (त्रोटकाचार्य)आदि थे।
Screenplay भी G.V.Iyer ने किया था। Music एम. बालमुरली कृष्णा ने किया था। Cinematography अम्बट् ने किया था। यह फिल्म आदि गुरु शंकराचार्य से सम्बन्धित थी,जो  आठवीं सदी में अद्वैत दर्शन के दार्शनिक थे
आदि शंकराचार्य फिल्म को 31st National Film Awards में चार Best Award मिलें, जिसको तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने सम्मानित किया एवं प्रशंसा भी की । आदिशंकराचार्यः फिल्म को सबसे अधिक चार Award मिलें, जिसमें-
Best Film, Best Screenplay, Best Cinematography and Best Audiography.
इस प्रकार से संस्कृत जगत की पहली फिल्म आदिशंकराचार्यः ऐतिहासिक फिल्म रही। उसके बाद G.V.Iyer ने भगवद् गीता फिल्म बनाई १९९३ में जिसको संस्कृत और तेलगु दो भाषाओं में बनाया गया इस फिल्म को International Film Festival of India में भी दिखाया गया एवं Best Feature Film का National Award भी १९९३ में मिला। इसको produce करनेवाले T. Subbarani Reddy थे। मुद्रराक्षसम् फिल्म का केवल promo अभी तक बना है जिसको Dr. Manish K. Mokshagundam ने Direct किया है। संस्कृत की पहली animated film पुण्यकोटी है।  इसके Director Ravi Shankar V  हैं । संस्कृत भाषा में ही प्रथम short film (documentary) निधीश गोपी ने बनाया K.S. Santosh Kumar ने प्रथम school short film केरल में १२ मार्च २०१५ को बनाया । अ संस्कृत भाषा में ही तृतीय चलचित्र बन रहा है, जो सितम्बर में रिलीज होगा और उसके Director है - विनोद मनकार और फिल्म का नाम है - प्रियमानसम् । यह फिल्म १७वीं शताब्दी के केरल के कवि, विद्वान उन्नायी योद्धा पर बन रही है
अतः इस प्राकार से संस्कृत चलचित्र को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया । इस प्रकार से यह प्रयास किया जा रहा है कि भविष्य में संस्कृत भाषा में , ऐतिहासिक समकालीन चलचित्र बनने से  विश्व के जनमानस एवं समाज का कल्याण हो।




      आदि शंकराचार्यः चलचित्र का नाट्यशास्त्रीय अध्ययन (अभिनय के विशेष संदर्भ में)

शंकराचार्य चलचित्र को पूर्ण रूप से नाट्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि इसमें भरतमुनि प्रणीत नाट्यशास्त्रीय नियमों का पालन हुआ है। अभिनय के चारों प्रकार, आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक को इस फिल्म में प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि जब शंकराचार्य का अभिनय सर्वदमन बनर्जी करते हैं तब आंगिक अभिनय के अन्तर्गत स्वयं को उसी पात्रानुरूप प्रस्तुत करते हैं । इसी प्रकार वाचिक, सात्विक, आहार्य में भी प्रस्तुति होती है।
आदि शंकराचार्यः चलचित्र में सर्वदमन बनर्जी ने भरतमुनि प्रणीत नाट्याशास्त्रानुसार अभिनय के चारों प्रकारों को सम्यक् रूप से धारण करके आदि शंकराचार्य के अभिनय को प्रस्तुत किया है। जैसे कि जब काशी में शंकराचार्य का आगमन होता है और वहां के विद्वानों से शास्त्रार्थ होता है तो अपने अंग-प्रत्यंगों से ऐसा आंगिक अभिनय करके प्रश्नों का समाधान करते हैं कि मानो शंकराचार्य के व्यक्तित्व को अभिनेता ने पूर्णतः धारण कर लिया हो, जब सर्वदमन बनर्जी किसी मंत्र या श्लोक का वाचन करते हैं और अपने हाथ को सुर एवं लय के साथ गति देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि आंगिक अभिनय को अभिनेता ने धारण कर लिया है । इसमें प्रमुख रूप से संस्कृत का शुद्ध उच्चारण एवं हाथ-पैर की चेष्टा है। इसी प्रकार से सर्वदमन बनर्जी का वाचिक अभिनय फलीभूत होता है। शुद्ध संस्कॄत का उच्चारण तथा श्लोक एवं मन्त्र का सस्वर उच्चारण वे करते हैं । इतना ही नहीं, आंगिक और वाचिक अभिनय साथ-साथ में फलीभूत होता रहता है ।
गेरुआ वस्त्र धारण किये हुए, कण्ठ में रुद्राक्ष की माला एवं हाथ में दण्ड लिए हुए आदि के माध्यम से आहार्य अभिनय भी अपने उत्स को प्राप्त हुआ है
सात्विक अभिनय को मन कहते हैं। तपस्या या योग ध्यान के समय सर्वदमन बनर्जी का अभिनय अद्वितीय रहता है। कुछ न कहते हुए सब कुछ कह देते हैं । जब वे अपने जीवन की पूर्व घटनाओं के विषय में सोचते हैं तो उस समय उनके मन और मुख की लालिमा अद्वितीय होती है।
अतः इस प्रकार से आदि शंकराचार्य के अभिनय को बहुत ही सम्यक् रूप से तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म पहलूओं पर पैनी दृष्टि से अवलोकन करके, सर्वदमन बनर्जी ने अपने जीवन में नाट्यशास्रानुसार अभिनय के सभी पक्षों का आश्रय लेकर अपने अभिनय को फलीभूत किया है।
अभि उपसर्ग पूर्वक णीञ् प्रापणे (नी) धातु से अच् प्रत्यय होकर अभिनय शब्द बनता है जिसका अर्थ नाट्य प्रयोग के अर्थों को प्रेक्षकों (सामाजिकों) के समक्ष प्रत्यक्षतः प्रदर्शित करना है। आचार्य भरतमुनि के अनुसार:
विभावयति यस्माच्च नानार्थनिहि प्रयोगतः।
शाखाङ्गोपाङ्गसंयुक्तस्तस्मादभिनयः स्मृतःनाट्यशास्त्र, .
अर्थात्, जिसके सांगोपांग प्रयोग के द्वारा नाट्य के नानाविध अर्थों का सामाजिक को विभावन या रसास्वादन कराया जाय उसे अभिनय कहते हैं। भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः (साहित्यदर्पण,.) अभिनेता द्वारा अभिनय की अवस्थाओं का अनुकरण ही अभिनय है।
अभिनय के प्रकार:
आङ्गिकं भुवनं यस्य वाचिकं सर्वाङ्गमयम्।
आहार्यं चन्द्रतारादि तं नुमः सात्विकं शिवम्॥ अभिनयदर्पण, .
भरतमुनि के अनुसार, अभिनय मुख्य रूप से चार का होता है:
१.    आंगिक
२.    वाचिक
३.    सात्विक
४.    आहार्य
इसके बाद अभिनय के नाना भेद-प्रभेद हैं जिनकी चर्चा विस्तारपूर्वक की जाएगी।
आंगिक अभिनय
त्रिविधस्त्वांगिको ज्ञेयः शारीरो मुखजस्तथा।
तथा चेष्टाकृतश्चैव शाखाङ्गोपाङ्गसंयुतः॥ नाट्यशास्त्र, .११
अर्थात्, अंगों के द्वारा प्रदर्शित किये जाने वाले अभिनय आंगिक अभिनय कहलाते हैं। नाट्यशास्त्र में आंगिक अभिनय तीन प्रकार के बताए गये हैंशारीरज, मुखज, चेष्टाकृत।
वाचिक अभिनयदृश्यकाव्य में वाचिक अभिनय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने वाचिक अभिनय को नाट्य का शरीर कहा है। क्योंकि अभिनय के अंग उसके अर्थ को व्यंजित करते हैं। नाट्यशास्त्रानुसार वाचिक अभिनय; नाट्य का शरीर एवं पाठ्य वाचिक अभिनय का प्राण है। नाट्यशास्त्र में पाठ्य के छः अंग बताए गए हैं। स्वर, स्थान, वर्ण, काकु, अलंकार एवं अंग। भरत ने वाणी को ही समस्त विश्व का कारण माना है (नाट्यशास्त्र, १४.)|
आहार्य अभिनयभरतमुनि के अनुसार अवस्था के अनुरूप प्रकृतिगत वेश-विन्यास, अलंकार, परिधान, अंगरचना आदि को आहार्य अभिनय कहा जाता है। अभिनेता देश-काल के अनुरूप वेश-भूषा धारण और अंगों के वर्ण-विन्यास से युक्त होकर विभिन्न चेष्टाओं के द्वारा प्रेक्षकों के समक्ष भावों को अभिव्यक्त करता है। जिससे प्रेक्षकों कें रसानुभूति होती है। भरत के अनुसार आहार्य अभिनय चार प्रकार का होता है। पुस्त, अलंकार, अंगरचना और संजीव।
सात्विक अभिनय सत्व मन को कहते हैं (सत्वं मनः)। सात्विक भावों से किया गया अभिनय सात्विक अभिनय कहलाता है। यह अभिनय मन की एकाग्रता के बिना सम्भव नहीं है। अभिनव के अनुसार सात्विक भाव के पूर्ण होने पर ही नाट्य प्रयोग प्रशंसनीय होता है। नाट्य ही रस है और रस का अंतरंग सात्विक है तथा सात्विक में ही नाट्य प्रतिष्ठित है (नाट्यं सत्वे प्रतिष्ठितम्, नाट्यशास्त्र, २२.)। नन्दिकेश्वर ने सात्विक अभिनय को शिव रूप माना है (तं नुमः सात्विकं शिवम्, अभिनवदर्पण, )। सात्विक अभिनय के आठ भाव होते हैं। स्तम्भ, श्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।
अतः इस प्रकार से संक्षेप में अभिनय के प्रकारों का विवेचन हुआ एवं आदि शंकराचार्यः चलचित्र में किस प्रकार से चारों अभिनयों का प्रयोग करके चलचित्र का निर्माण किया गया है; संक्षेप में इसका विवेचन हुआ है।







संदर्भग्रन्थसूची (Bibliography)

१.    विद्यारण्य विरचित शंकर दिग्विजय,संपा० शिव प्रसाद द्विवेदी, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-०१,२०१२.
२.    lÉÉšzÉÉx§É,    pÉUiÉ, xÉqmÉÉSMü,AlÉÑuÉÉSMü, ÌOûmmÉhÉÏMüÉU , qÉ. qÉ. AÉcÉÉrÉï UåuÉÉmÉëxÉÉS ̲uÉåSÏ, pÉÉUiÉÏrÉ EŠ AkrÉrÉlÉ xÉÇxjÉÉlÉ ÍzÉqÉsÉÉ , 2005.
३.    मुसलगावकर, केशवराज,संस्कृत नाट्यमीमांसा, परिमल पाब्लिकेशन्स, दिल्ली-०७, २००३.
४.    शास्त्री, शालिग्रामः, साहित्यदर्पणः(कविराजविश्वनाथकृतः), मोतीलाल बनारसीदास,२००४ ई.
५.    विद्यालंकार, शशिभानु, संस्कृत नाटकों में दार्शनिक तत्त्व, संजय प्रकाशन, १९९८.
६.    नागार्च, विहारीलाल, अट्ठारहवी शती के संस्कृत रूपक, पाब्लिकेशन स्कीम, जयपुर,१९९०
७.    द्विवेदी, कैलाशनाथ,संस्कृत के प्रतीक नाटक और अमृतोदय, राष्ट्रीय संस्कृत साहित्य केन्द्र, जयपुर,२००६.
८.    राघवन, वी, काव्यनाटक संग्रह, साहित्य अकादेमी,नई दिल्ली-०१,२००२.
९.    श्रीवास्तव,संजीव,हिन्दी सिनेमा का इतिहास,प्रकाशन विभाग,प्रथम सं० २००६.
१०.   संस्कृत-नाटक (उद्भव और विकास:सिद्धान्त और प्रयोग),.बी.कीथ, अनुवादक, डा० उदयभानु सिंह, मोतीलाल बनारसीदास,१९७१ ई.
११.   द्विवेदी,पारसनाथ,नाट्यशास्त्र का इतिहास, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन,  वाराणसी.२००४.
१२.   उपाध्याय, रामजी, मध्यकालीन संस्कृत नाटक, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी-०१, १९९१



No comments:

Post a Comment