Monday, 20 October 2025

 

यह एक अत्यंत गहन, नैतिक, और सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत कहानी/नाटक “दया की कीमत” लिखी है। यह कथा मानव-स्वभाव, कर्मफल, और करुणा की सीमाओं को जिस गहराई से छूती है, वह नाट्य के रूप में अत्यंत उपयुक्त है।

यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है, प्रत्येक अंक मानवता, विवेक और कर्मफल के तीन स्तरों का प्रतिनिधित्व करता है।

🎭 नाट्य रूपांतरण

शीर्षक: दया की कीमत

लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
रूपांतरण: संवाद-प्रधान सामाजिक नाटक (३ अंक)

पात्रावली

1. डॉ. विधु रूपाशंकर — राज्य सरकार की संयुक्त सचिव, सुसंस्कृत, करुणामयी, परहितैषी, परंतु विवेकशील अधिकारी।


2. डॉ. मूर्खीता वास्तव — पूर्व कुलपति (Vice Chancellor), कभी ज्ञान और पद की शिखर पर रही, अब भिखारिन और चोर बनी  स्त्री।


3. प्रोफेसर राघव मिश्र — डॉ. विधु रूपाशंकर के परिचित, बुद्धिमान, विवेकी और चेतावनी देने वाले मित्र।


4. विशाल मौर्य — चौकीदार।


5. वाचक (Narrator) — जो मंच के बीच में समय-समय पर कहानी का भावात्मक सूत्र प्रस्तुत करता है। (प्रो. सुशील कुमार मिश्र)


6. सहायक पात्र — पुलिस अधिकारी, कुछ नागरिक, भीड़ इत्यादि (संकेत मात्र)।


अंक – १ : भोर की मुलाकात

[मंच-सज्जा: एक सड़क का कोना, बगल में सरकारी क्वार्टरों की झलक। पीछे हल्की रोशनी, ओस की बूँदें झिलमिलाती।]**

वाचक (धीरे-धीरे):
भोर की मद्धिम रोशनी नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।
ओस की बूँदें जैसे प्रार्थना कर रही थीं — “एक और दिन, एक और मौका...”
इसी क्षण, डॉ. विधु रूपाशंकर अपने दफ्तर के लिए निकलने को तैयार थीं।
वह नहीं जानतीं — आज उनका सामना अपने ही अतीत के एक धुंधले चेहरे से होने वाला है।

[लाइट सड़क पर केंद्रित। एक वृद्धा सड़क किनारे बैठी है, कटोरा फैला हुआ।]

डॉ विधु रूपाशंकर (कार से उतरते हुए):
हे भगवान... यह कैसी दशा! यह चेहरा... कहीं देखा हुआ है...
(रुककर ध्यान से देखती हैं)
नहीं... असंभव... क्या ये वही हैं?
(धीरे से पास जाकर)
मैम... क्या आप डॉ. मूर्खीता वास्तव ही हैं?

वृद्धा (धीरे से सिर उठाती हैं):
(टूटी आवाज़ में)
हाँ बेटी... वही हूँ... पर अब उस नाम का क्या मूल्य?
अब तो लोग मुझे “भिखारिन” कहते हैं... कोई पहचानता नहीं।

विधु (भावविह्वल होकर):
मैम... आप तो विश्वविद्यालय की आत्मा थीं!
आपके व्याख्यान, आपकी आवाज़ आज भी याद है मुझे।
आइए मेरे साथ चलिए — अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।

वृद्धा (रोते हुए):
बेटी... तू देवी है... जिसने मुझे इंसान समझा।
तेरी छत के नीचे रह लूँ तो शायद कुछ पाप धुल जाएँ।

[दोनों मंच से धीरे-धीरे बाहर जाते हैं। पृष्ठभूमि में वाचक की आवाज़ गूँजती है।]

वाचक:
यही तो है करुणा का पहला रूप — जो किसी के पतन में भी मनुष्य की झलक देख लेता है।
परंतु कभी-कभी करुणा, विवेक की आँखों को ढँक देती है...

अंक – २ : दया का घर

[मंच: डॉ. विधु का घर। एक साफ-सुथरा बैठक कक्ष। वृद्धा को एक छोटे कमरे में रखा गया है।]

विधु:
मैम, यह आपका कमरा है। गरम खाना, साफ बिस्तर, सब तैयार है।
आप घर की सफाई कर लें, आत्मसम्मान भी रहेगा और आपका ध्यान भी रहेगा।

वृद्धा:
(कृतज्ञ भाव से)
बेटी... तूने मुझ पर उपकार किया है।
मैं तेरे घर को अपना मंदिर समझूँगी।
(रुककर) मैं लैट्रिन-बाथरूम भी साफ कर लूँगी, कोई आपत्ति नहीं।

वाचक:
दिन बीतने लगे।
जो कभी विश्वविद्यालय की अधिष्ठात्री थीं,
अब बाथरूम साफ कर रही थीं — और यही नियति का सबसे सूक्ष्म व्यंग्य था।

[मंच पर प्रवेश — प्रोफेसर राघव मिश्र।]

राघव:
(हँसते हुए) अरे विधु! पुरानी छात्रा अब बड़ी अफ़सर बन गई है!
(रुकते हैं, वृद्धा को देखते हैं)
यह आपकी गृह सहायक हैं? चेहरा बड़ा परिचित लग रहा है...

विधु:
जी हाँ, ये डॉ. मूर्खीता वास्तव हैं — कभी वैशाली विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर थीं।

राघव (चौंककर):
क्या कहा आपने? वही महिला?
वो जिसने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब किए थे?
जिसके कारण कितने छात्र बरबाद हुए?

विधु (हैरान):
क्या... ये सब सच है?

राघव (गंभीर स्वर में):
जी हाँ।
उनके पति ने आत्महत्या की, बेटे ने नशे में जान दी।
उन्होंने अपने ही परिवार को निगल लिया।
वह ज्ञान की नहीं, लालच की भूख में जीती थीं।

[वृद्धा यह सब सुन लेती हैं, लेकिन मौन रहती हैं। उनकी आँखों में एक जली हुई शर्म झलकती है।]

वाचक:
विश्वास की जड़ें तभी हिलती हैं जब सत्य और दया आमने-सामने खड़े होते हैं...

अंक – ३ : दया की कीमत

[मंच: रात का दृश्य। बाहर बारिश हो रही है। घर में अँधेरा।]

(संगीत: हल्की थरथराती ध्वनि, जैसे भीतर कुछ टूट रहा हो)

वाचक:
उस रात शहर में वर्षा थी...
और उसी वर्षा के शोर में विश्वास की आख़िरी साँसें घुल रही थीं।

[अचानक अलमारी की आवाज़। विधु जागती हैं, दौड़कर बाहर आती हैं।]

विधु:
कौन है वहाँ?...
(लाइट पड़ती है — दरवाज़ा खुला है, कमरा खाली)
हे भगवान!... अलमारी टूटी हुई... सब गहने, कागज़, पैसे — गायब!

[विशाल चौकीदार दौड़कर आता है]

विशाल:
मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह-अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी... मैंने देखा।

विधु (थकी हुई आवाज़ में):
(धीरे से बैठ जाती हैं)
मैंने उसे देवी माना... उसने मुझे ठगा।
(गहरी साँस) शायद ये ही मेरी गलती थी — मैंने दया को विवेक से ऊपर रखा।

[प्रकाश धीमा होता है — पुलिस अधिकारी प्रवेश करता है, हाथ में डायरी लेकर।]

पुलिस अधिकारी:
मेमसाब, वो महिला मृत पाई गई हैं... पुराने रेलवे स्टेशन के पास।
उनके पास कुछ चोरी का सामान और यह डायरी मिली है।

विधु (डायरी खोलकर पढ़ती हैं):
“मैंने सब खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान।
अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है।
शायद यही मेरी सजा है... या इससे बड़ी सजा अभी बाकी है।”

[सन्नाटा। वर्षा की आवाज़ बढ़ती है।]

विधु (आँखें बंद कर):
कितना विचित्र है — जब आत्मा भूख से मर जाती है,
तो अपराध ही उसका भोजन बन जाता है।
(धीरे से उठती हैं)
दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।

वाचक (अंतिम संवाद):
हर भूख पेट की नहीं होती — कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।
दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो,
नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है...

[लाइट धीरे-धीरे बुझती है, केवल वर्षा की ध्वनि गूँजती है। मंच अंधकार में डूब जाता है।]

नाट्य संदेश (थीम):

“करुणा तभी दिव्यता है जब वह विवेक से संचालित हो।
अन्यथा, वह अपराध के लिए अवसर बन जाती है।”


@Dr. Raghavendra Mishra 

 कहानी शीर्षक:


 *दया की कीमत*


लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU 


१. भोर का एक दृश्य


भोर की मद्धिम रोशनी धीरे-धीरे नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।

पेड़ों से गिरती ओस की बूँदें जैसे नई सुबह की प्रार्थना कर रही थीं।


अधिकारी डॉ. विधु रूपाशंकर  हमेशा की तरह अपने कार्यालय के लिए निकलने को तैयार थीं। वे राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत थीं — अनुशासन, कर्मनिष्ठा, सहयोग , परहित और संवेदना उनका परिचय था।


गाड़ी जैसे ही मुख्य सड़क पर पहुँची, डॉ. विधु रूपाशंकर  की दृष्टि अचानक एक भीख माँगती वृद्धा पर पड़ी।

पतले बिखरे बाल, फटे वस्त्र, थरथराते हाथ, और आँखों में भय तथा लज्जा का मिश्रित भाव।


वह दृश्य उन्हें झकझोर गया।

कुछ पल तक वे उस वृद्धा को देखती रहीं, फिर अचानक उन्हें लगा — यह चेहरा कहीं देखा हुआ है... बहुत परिचित सा!


उनके मन की गहराइयों से कोई नाम उभर आया —

“ डॉ. मूर्खीता वास्तव?”


२. वह जो कभी विश्वविद्यालय की आत्मा थी


सालों पहले की स्मृतियाँ जैसे एक झोंके में लौट आईं।

जब डॉ. विधु रूपाशंकर  विश्वविद्यालय में शोध कर रही थीं, तब वही डॉ. मूर्खीता वास्तव.  वहाँ की वाइस चांसलर थीं — तब वह स्वयं अपने आपको विदुषी, तेजस्वी, प्रभावशाली मानती थी, और उसके चमचे भी कुछ ऐसा ही मानते थे।

उनकी एक कुटिल मुस्कान पर सैकड़ों राजनैतिक लोग, कक्षा ना लेने वाले वेतन भोगी शिक्षक एवं और केवल राजनीति करने वाले विद्यार्थी प्रेरित हो जाते थे।


कभी जिनके सामने बड़े-बड़े प्रोफेसर उसके पद और शक्ति के चलते झुकते थे,

आज वही महिला... भीख माँग रही थी, तथा दीन, हीन बनकर पड़ी है, हाय रे, भाग्य, हाय दुर्भाग्य!


डॉ. विधु रूपाशंकर  की आत्मा जैसे सिहर उठी।

वे उतर पड़ीं, वृद्धा के पास पहुँचीं, और विनम्र स्वर में बोलीं 


 “ मैम... क्या आप डॉ. मुर्खीता वास्तव ही हैं?”




वृद्धा ने सिर उठाया। कुछ क्षण तक उनकी आँखों ने डॉ विधु खरे दास जी का चेहरा पढ़ा — फिर बोलीं —


 “हाँ बेटी... पर अब उस नाम का क्या मूल्य? अब तो लोग मुझे बस ‘भिखारन’ , चोर और मुर्खा ही कहते हैं।”




डॉ. विधु रूपाशंकर  की आँखें भर आईं।

वे बोलीं —


“मैम, आइए मेरे साथ। आप मेरे घर चलिए। अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।”


३. दया का द्वार


उस दिन डॉ. विधु रूपाशंकर  ने वृद्धा को अपने घर में स्थान दिया।

छोटा-सा कमरा, साफ बिस्तर, और गरम भोजन का थाल उनके सामने रखा।


 “मैम, मैं चाहती हूँ आप यहाँ रहें। घर की सफाई का हल्का-फुल्का काम कर लें, जिससे आत्मसम्मान भी बना रहे और आप सुरक्षित भी रहें।”



वृद्धा की आँखों से आँसू झर पड़े —


 “बेटी... तू देवी है। जिसने मुझे इंसान समझा और मेरा पेट पालने के लिए मुझे आश्रय दिया।”

मैं लैट्रिन बाथरूम भी साफ कर दूंगी, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।



धीरे-धीरे दिन बीतने लगे।

 डॉ. मुर्खीता वास्तव अब घर की सफाई, रसोई में सहयोग और बगीचे की देखभाल करने लगीं।

वे चुपचाप, बिना शिकायत के, काम करतीं।


डॉ. विधु रूपाशंकर  को लगता — शायद यही मानवता का अर्थ है: “जिस पर समाज ने दरवाज़े बंद कर दिए, उसके लिए एक खिड़की खोल देना।”


४. छिपा हुआ अतीत


लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।

एक दिन डॉ. विधु रूपाशंकर  के पुराने सहकर्मी, प्रोफेसर राघव मिश्र, उनके घर मिलने के लिए आए।


चाय पीते-पीते अचानक उन्होंने पूछा —


" बड़ी बहन, यह जो आपकी घर की मददगार हैं... इनका चेहरा बहुत परिचित लग रहा है। कहीं ये वही डॉ. मुर्खीता वास्तव  तो नहीं जो विश्वविद्यालय से घोटाले, चोरी, भ्रष्टाचार, डकैती के बाद फरार हो गई थीं?”



डॉ. विधु रूपाशंकर  ने चौंक कर कहा —


 “घोटाला, चोरी, भ्रष्टाचार और डकैती? आप क्या कह रहे हैं, सर?”




 प्रोफेसर राघव मिश्र ने गहरी साँस ली —

 “आपको नहीं पता? वाइस चांसलर रहते हुए उन्होंने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब कर दिए थे। कई दस्तावेज़ों में उनके हस्ताक्षर झूठे पाए गए थे, और विभिन्न मामलों में भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ी गईं। जब मामला खुला, तो वे गायब हो गईं। उनके पति ने आत्महत्या कर ली... बेटा नशे में मर गया, अपने बहु और नातियों को खुद इसने मार दिया... और वो महिला वर्षों से लापता थीं।”




डॉ विधु खरे दास सन्न रह गईं।

मन में उठी दया अब संशय, क्रोध और पछतावे में बदलने लगी।


५. विश्वास का तिरस्कार


कुछ महीनों बाद, एक रात, जब शहर में तेज़ बारिश हो रही थी, डॉ विधु खरे दास गहरी नींद में थीं।

अचानक एक आवाज़ से उनकी नींद टूटी — “अलमारी का दरवाज़ा खुलने की आवाज़।”


वे उठीं, और देखा — डॉ. विधु रूपाशंकर  का कमरा खाली था।

मुख्य द्वार खुला पड़ा था।


अलमारी टूटी हुई थी, और सारे गहने, नकद, कागज़ — सब गायब!


उनका हृदय जैसे रुक गया।

 “नहीं... यह वही नहीं हो सकती जिसने मेरे सामने हाथ जोड़कर कहा था — ‘मैं तुम्हें देवी मानती हूँ, आपने मुझे रोटी और आश्रय दिया है।’”



पर सच्चाई सामने थी।


सुबह तक पुलिस बुलाई गई।

चौकीदार विशाल मौर्या ने बताया —


 “मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी।”


६. न्याय और नियति


जाँच में जो सामने आया, उसने डॉ. विधु रूपाशंकर  की दया को राख कर दिया और विश्वास को तोड़ दिया।

खरे जी प्रोफेसर राघव मिश्र के वाक्य को महसूस कर रही थी और पुनः स्वयं बुदबुदा रही थी कि: स्वास के टूटने से बड़ा दुःख विश्वास के टूटने पर होता है...


मुर्खीता वास्तव ने सिर्फ डॉ. विधु रूपाशंकर  का नहीं, बल्कि पहले भी कई लोगों का विश्वास तोड़ा था।

वह शहर-शहर जाकर पहले दया की पात्र बनतीं, फिर चोरी कर भाग जातीं।


उसका पूर्ण जीवन जैसे “शापित” हो चुकी थी।

वो ज्ञान की नहीं, लालच की भूख लगा सकते में जी रही थीं — जो किसी समय दया की पात्र थीं, अब धन की पिपासु भूतनी बन चुकी थीं।


७. दया का अंत


कुछ दिनों बाद पुलिस ने खबर दी —


 “वो महिला एक पुराने रेलवे स्टेशन पर मृत पाई गई हैं। उनके पास कुछ चोरी का सामान और टूटी हुई डायरी मिली है।”



डॉ. विधु रूपाशंकर  ने वह डायरी पढ़ी।

अंदर लिखा था —


“मैंने सब कुछ खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान। अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है। शायद यही मेरी सजा है।” या इससे भी कोई बड़ी सजा अभी नरक में बाकी हो...


डॉ. विधु रूपाशंकर  की आँखें भर आईं और वह बोलीं —

“कितना विचित्र है — जब मन भूख से मर जाती है, तो रोटी नहीं, अपराध उसका भोजन बन जाता है।”


८. अंत — दया की कीमत


उस रात डॉ. विधु रूपाशंकर  खिड़की के पास बैठी रहीं।

बारिश की बूँदें शीशे पर गिर रही थीं।

उन्होंने धीरे से कहा 

 “दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।”


उनकी आँखें बंद हुईं, और मन में एक प्रश्न गूंजा —

“क्या किसी का अतीत मिटाया जा सकता है, या वह हर जन्म में अपने कर्मों का बोझ उठाता रहता है?”


कहानी यहीं समाप्त होती है।

दया बनी रहती है, परंतु उसका मूल्य — ‘दया की कीमत’ — हमेशा मनुष्य के विवेक से तय होती है।


“हर भूख पेट की नहीं होती, कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।

दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो, नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है।”



@Dr. Raghavendra Mishra 

Friday, 20 June 2025

 

महाभारत के युद्ध पर्व में "चिड़िया की रक्षा की कथा" एक अत्यंत मार्मिक और शिक्षाप्रद उपाख्यान के रूप में आती है, जो युद्ध की विभीषिका में करुणा, धर्म और सह-अस्तित्व का गूढ़ संदेश देती है। यह कथा विशेष रूप से भीष्म पर्व या कर्ण पर्व के दौरान उद्धृत होती है, जब युद्ध अपने चरम पर होता है और चारों ओर हिंसा व्याप्त है।

चिड़िया की रक्षा की कथा: सार और विस्तार

कथानक की पृष्ठभूमि:

कुरुक्षेत्र के युद्ध के बीच जब वीरगति प्राप्त योद्धाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी, रक्त की नदियाँ बह रही थीं, तब एक अद्भुत और मार्मिक दृश्य सामने आता है – जिसमें एक पक्षी माँ (चिड़िया) अपने अंडों की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में संघर्ष करती है।

कथा का विस्तार:

एक दिन युद्ध के दौरान जब अगला युद्ध प्रारंभ नहीं हुआ था, तभी अर्जुन अपने रथ पर युद्ध भूमि में पहुंचे। उन्होंने देखा कि युद्ध क्षेत्र के बीचों-बीच एक छोटी सी चिड़िया (या तीतर या पंखी) ने घास और मिट्टी के छोटे-छोटे तिनकों से घोंसला बनाया है। उसमें उसके कुछ अंडे रखे हुए हैं।

अर्जुन ने सोचा:

"यह घोंसला युद्ध भूमि में बना है। यहाँ अगली लड़ाई के समय तो रथ, हाथी, घोड़े, सैनिक सब दौड़ते हुए यहाँ से गुजरेंगे। तब ये अंडे कुचले जाएंगे।"

तब अर्जुन ने अपने रथचालक श्रीकृष्ण से कहा:

“माधव! इस युद्धभूमि में भी यह निरीह पक्षी अपने मातृत्व धर्म को निभा रही है। क्या हम इसके अंडों की रक्षा नहीं कर सकते?”

श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले:

“धनंजय! यह तुम्हारी करुणा और धर्मबुद्धि का प्रमाण है। यही तो धर्म है — कि युद्ध के बीच भी जो जीवन की रक्षा करे, वही सच्चा वीर है।”

रक्षा की युक्ति:

अर्जुन ने तत्काल निर्णय लिया। वह अपने दिव्यास्त्रों द्वारा उस घोंसले के चारों ओर एक अदृश्य रक्षा कवच बना देते हैं — एक ऐसा चक्रव्यूह या शक्ति-कवच — जिसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता।

फिर भी युद्ध आरंभ होता है। हाथी, रथ, घोड़े, गदा, चक्र, अग्नि — सब कुछ उस क्षेत्र से गुजरते हैं, किन्तु जब युद्ध समाप्त होता है और सभी लौटते हैं, तब देखा जाता है कि:

 चिड़िया का घोंसला ज्यों का त्यों सुरक्षित है,
 और उसके अंडे भी सुरक्षित हैं,
और वह चिड़िया उन अंडों को से रही है।

कथा का प्रतीकात्मक अर्थ:

यह उपाख्यान केवल एक छोटी चिड़िया की रक्षा नहीं है, बल्कि महाभारत के संहारकारी युद्ध में करुणा, धर्म, मातृत्व, और संवेदना के जीवन-मूल्यों की रक्षा का प्रतीक है।

तत्व अर्थ
चिड़िया निरीह जीवन, प्रकृति, मातृत्व
अर्जुन धर्मयुक्त योद्धा
कृष्ण योगेश्वर, नीति का सार
अंडों की रक्षा जीवन-संरक्षण, धर्म के प्रति उत्तरदायित्व
अदृश्य कवच करुणा और युक्ति का मिलन

महत्त्वपूर्ण शिक्षा:

  • धर्म केवल शत्रु को मारना नहीं, बल्कि निर्दोष की रक्षा करना भी है।
  • युद्ध में भी करुणा जीवित रह सकती है।
  • एक सच्चा योद्धा वही है जो साथी के प्राणों की ही नहीं, निरीह जीवों की रक्षा भी कर सके

यह कथा कर्ण पर्व अथवा भीष्म पर्व के अंतिम भागों में आई है।

Thursday, 19 June 2025

महाभारत एक अत्यंत व्यापक और गूढ़ ग्रंथ है, जिसमें केवल कुरुक्षेत्र युद्ध ही नहीं, बल्कि धर्म, नीति, जीवनमूल्य, दर्शन, लोककथाएँ, ऐतिहासिक प्रसंग, और विविध उपदेशात्मक उपाख्यानों (Sub-stories or Sub-narratives) का भी सुंदर समावेश है। इन उपाख्यानों को संस्कृत में "उपाख्यान" कहा गया है, और ये महाभारत के अठारह पर्वों में विविध स्थानों पर अंतर्भूत हैं।

महाभारत में उपाख्यानों की संख्या:

महाभारत में बहुत ही उपाख्यान है, जिसमें नीति, धर्म, एवं शिक्षोपदेश इत्यादि का उल्लेख किया गया है। ये सभी उपाख्यान राजा, ऋषि, पशु-पक्षी, देवता आदि के माध्यम से किसी नैतिक संदेश या व्यवहारिक जीवन का मार्गदर्शन देते हैं।

प्रमुख उपाख्यानों की सूची व वर्णन

यहाँ 50 प्रमुख उपाख्यानों को उनके सारांश के साथ प्रस्तुत किया गया है। 

1. नल-दमयंती उपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा नल और दमयंती की प्रेमकथा, दुःख, त्याग और पुनर्मिलन की गाथा।
  • नीति, प्रेम, धर्म और धैर्य का शिक्षाप्रद उपाख्यान।

2. सावित्री-सत्यवान उपाख्यान (वनपर्व)

  • सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लाना।
  • पत्नी का धर्म, नारी शक्ति व दृढ़ संकल्प का आदर्श।

3. ऋष्यशृंग उपाख्यान (विष्णुपर्व / अरण्यपर्व)

  • वानप्रस्थ में पले ऋष्यशृंग को राजा ने कृत्रिम स्त्री के माध्यम से मोहित कर राजमहल लाना।
  • विषयभोग, मोह, राजनीति की सूक्ष्म चर्चा।

4. भीष्म उपदेश (शांतिपर्व)

  • मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को धर्म, राजा-नीति, शांति और मोक्ष का उपदेश।
  • यह उपाख्यान नीति-दर्शन का भंडार है।

5. शुकनास उपदेश (उद्योग पर्व)

  • विदुर के माध्यम से प्रस्तुत राजधर्म और नीति का प्रसंग।
  • शासक को धर्मपूर्वक शासन कैसे करना चाहिए, उसका विवेचन।

6. पंचतान्तरक उपाख्यान

  • पांच अलग-अलग तंत्रों की रूपरेखा बताने वाला नीति उपदेशात्मक उपाख्यान।
  • जीवन को पांच तत्वों के आधार पर समझाने की दृष्टि।

7. गंगा-जन्म उपाख्यान (आदिपर्व)

  • गंगा का पृथ्वी पर अवतरण, भागीरथ प्रयास।
  • तपस्या, प्रयत्न, एवं धर्माचरण की प्रेरणा।

8. शिव-उमा विवाह उपाख्यान (अनुशासन पर्व)

  • शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन।
  • भक्ति, तपस्या और वैराग्य का समन्वय।

9. मत्स्योपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा सत्यव्रत को मत्स्यरूप में भगवान विष्णु द्वारा प्रलय की चेतावनी।
  • यह पुराणों के ‘मत्स्यपुराण’ का मूल स्रोत भी है।

10. हरिश्चंद्र उपाख्यान

  • सत्य, धर्म और तपस्या के प्रतीक राजा हरिश्चंद्र की कथा।
  • महान आदर्श और कठिन परीक्षा की गाथा।

11. शिबि उपाख्यान

  • राजा शिबि द्वारा कबूतर की रक्षा हेतु स्वयं को बाज के समक्ष अर्पित करना।
  • अतिथि सत्कार, परोपकार और आत्मत्याग की भावना।

12. एकलव्य उपाख्यान (आदिपर्व)

  • निषाद पुत्र एकलव्य की गुरु भक्ति और द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा।
  • जातिगत भेदभाव, गुरु-शिष्य संबंधों की आलोचनात्मक झलक।

13. विदुर नीति उपाख्यान (उद्योगपर्व)

  • विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को दिए गए नीति उपदेश।
  • आज भी प्रशासनिक और व्यक्तिगत जीवन में उपयोगी।

14. उत्तंक उपाख्यान

  • उत्तंक ऋषि और नागलोक की यात्रा।
  • तप, धैर्य और अधर्मियों से संघर्ष का रूपक।

15. अष्टावक्र उपाख्यान (शांतिपर्व)

  • विकृत शरीर वाले ब्रह्मज्ञानी ऋषि अष्टावक्र की कथा।
  • आत्मज्ञान का संदेश – शरीर नहीं, ज्ञान की प्रधानता।

16. श्रीनारायण उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण का विष्णुरूप और योगेश्वर स्वरूप का विवेचन।
  • भक्ति और दैवी चेतना की प्रेरणा।

17. संपाती उपाख्यान

  • जटायु के भाई संपाती की कथा।
  • युद्ध में त्याग और बंधुत्व का संकेत।

18. सुदामा-कृष्ण उपाख्यान

  • मित्रता, प्रेम, और कृष्ण की करुणा का प्रतीक।
  • भक्ति और निष्काम संबंधों की महिमा।

19. कच्छप उपाख्यान

  • कच्छप रूप में विष्णु का समुद्र मंथन हेतु सहयोग।
  • सहकार्य, तपस्या और कर्म का प्रतीक।

20. सांदीपनि उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण-बलराम की शिक्षा, गुरु सेवा।
  • शिष्य धर्म और शिक्षा के आदर्श।

21. अम्बा-अम्बिका-अम्बालिका उपाख्यान

  • तीन कन्याओं की कथा जिनसे पांडव-कौरव वंश विकसित हुआ।
  • स्त्री की नियति और पुरुष वर्चस्व की आलोचना।

22. प्रह्लाद उपाख्यान

  • हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति।
  • धर्म, भक्ति, असुरत्व पर विजय।

23. कपोत उपाख्यान (शांति पर्व)

  • कपोत-पत्नी द्वारा आग में कूदकर शिकारियों को भोजन देना।
  • त्याग, दया और आत्मदान।

24. द्रौपदी-चीरहरण उपाख्यान

  • कौरव सभा में द्रौपदी का अपमान, श्रीकृष्ण द्वारा रक्षा।
  • नारी अस्मिता और धर्म के पतन की सीमा।

25. नर-नारायण उपाख्यान

  • नर-नारायण ऋषियों की तपस्या और शिव के युद्ध का प्रसंग।

 26. मंडपिक उपाख्यान

 27. भरद्वाज उपाख्यान

 28. पराशर मत्स्य्योपाख्यान

 29. दुर्वासा-द्रौपदी उपाख्यान

 30. नारद-प्रह्लाद संवाद

 31. लोमश ऋषि उपाख्यान

 32. माण्डव्य ऋषि उपाख्यान

 33. महात्मा गालव उपाख्यान

 34. श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह उपाख्यान

 35. कच्छ-देवयानी उपाख्यान

 36. ययाति-देवयानी-शर्मिष्ठा उपाख्यान

 37. भीम-हनुमान मिलन उपाख्यान

🔹 38. अर्जुन-उलूपी उपाख्यान

🔹 39. अर्जुन-चित्रांगदा उपाख्यान

🔹 40. अर्जुन-सुभद्रा विवाह उपाख्यान

🔹 41. घटोत्कच जन्म उपाख्यान

🔹 42. बलराम तीर्थयात्रा उपाख्यान

🔹 43. कृष्ण-जरा व्याध उपाख्यान

🔹 44. वृष्णिनाश उपाख्यान

🔹 45. युधिष्ठिर-नकुल-भीम-शिव संवाद

🔹 46. नहुष-ययाति उपाख्यान

🔹 47. ब्रह्मदत्त उपाख्यान

🔹 48. गौतम-आरुंधती उपाख्यान

🔹 49. दुर्वासा-शकुनि संवाद

🔹 50. श्रीकृष्ण-गर्भसंहार उपाख्यान

महाभारत में उपाख्यान केवल कथा नहीं हैं, बल्कि यह भारत की नीतिशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र, सामाजिक जीवन, मानव-व्यवहार, स्त्री-पुरुष के दायित्व, और आध्यात्मिक मूल्य इत्यादि का दर्पण हैं।


Tuesday, 17 June 2025

 

नाट्यशास्त्र के पूर्व और पश्चात् नृत्य की भारतीय परंपराएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन 


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU 

यह लेख भारतीय नृत्य परंपरा के विकास को भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को आधार बनाकर दो चरणों में विश्लेषित करता है नाट्यशास्त्र के पूर्व एवं पश्चात्। वैदिक, पौराणिक, आगमिक तथा लोक परंपराओं में व्याप्त नृत्य के प्रारंभिक स्वरूपों से लेकर नाट्यशास्त्र द्वारा शास्त्रीय अनुशासन प्राप्त नृत्य संरचनाओं तक का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह शोध नृत्य को भारतीय ज्ञान परंपरा में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से जोड़ता है।

प्रस्तावना:
भारतीय नृत्य परंपरा, एक कला मात्र नहीं, अपितु एक जीवनशैली, धर्मानुष्ठान और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम है। नाट्यशास्त्र की रचना ने इस परंपरा को एक शास्त्र रूप प्रदान किया, जिससे पूर्व की बिखरी हुई नृत्य परंपराएं एक संगठित और व्याख्यायित रूप में परिवर्तित हो गईं।

नाट्यशास्त्र के पूर्व की नृत्य परंपराएँ

 वैदिक और उपनिषदकालीन परंपरा
ऋग्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में नृत्य का उल्लेख यज्ञों, उत्सवों और देवताओं की आराधना के रूप में होता है। ऋग्वेद के मंत्रों में "नृत्य" शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे “नृत्यद्वाजं रथेष्ठां वृषणं हुवे”। श्वेताश्वतर उपनिषद में ईश्वर को नृत्य करते हुए मुनियों में देखा गया है  "नृत्यते मुनिः आत्मन्येव"।

 पौराणिक व आगमिक नृत्य दृष्टि
शिव के ताण्डव और पार्वती के लास्य से नृत्य के द्वैत भाव की स्थापना होती है। विष्णु के रासलीला रूप में भक्ति रस प्रधान नृत्य की कल्पना दिखाई देती है। लिंगपुराण, शिवपुराण, नारद पुराण में नृत्य को ब्रह्मांडीय ऊर्जा और धर्म का अवयव माना गया है।

 लोक परंपराएँ

भील, संथाल, गोंड, यक्षगान, छाऊ जैसे नृत्य लोक जीवन से सीधे जुड़े रहे। इनकी भाषा, संगीत, ताल, वेशभूषा और भाव प्रदर्शन स्थानीयता में निहित थी। ये नृत्य उत्सव, युद्ध, विवाह तथा देवी-देवता की पूजा से संबद्ध होते थे।

 नाट्यशास्त्र का आगमन: नृत्य की शास्त्रीय संरचना

नाट्यशास्त्र में अंगिक, वाचिक, सात्त्विक, और आहार्य अभिनय के साथ नृत्य की व्यापक परिभाषा दी गई। रस-सिद्धांत, भाव, चारी, करण, अंगहार, तथा नृत्त-नृत्य-नाट्य की स्पष्ट व्याख्या की गई। शिव के 108 करणों का उल्लेख – जो शास्त्रीय नृत्य की मूल इकाई बने।

भरतमुनि ने नृत्य को तीन भागों में विभाजित किया:

  1. नृत्त – शुद्ध गति और चालनाएँ
  2. नृत्य – भावप्रदर्शन सहित गति
  3. नाट्य – संवाद और अभिनयप्रधान नाट्य

इसके साथ ही रस सिद्धांत के आधार पर नृत्य को दर्शक के हृदय में अनुभवजगत की अनुभूति कराने वाला माध्यम माना गया।

नाट्यशास्त्र के पश्चात् विकसित नृत्य परंपराएँ

नृत्य की क्षेत्रीय शाखाएँ
नाट्यशास्त्र के पश्चात् भारत में नृत्य विभिन्न शैलियों में विभाजित होकर समृद्ध होता गया:

भरतनाट्यम् (तमिलनाडु) – मंदिर-नृत्य, देवदासी परंपरा, अभिनय और करणा प्रधान
कथक (उत्तर भारत) – कथा वाचन से उत्पन्न, दरबारी और लोक दोनों प्रभाव
ओडिसी (ओडिशा) – त्रिभंगी, चौक, जगन्नाथ मंदिर परंपरा
मणिपुरी (मणिपुर) – रासलीला आधारित, माधुर्य रस
कथकली (केरल) – वीर रस, रंगमंचीय, मुखाभिनय पर केंद्रित
कुचिपुड़ी (आंध्रप्रदेश) – नाट्य रूप में नृत्य
सत्रिया (असम) – वैष्णव भक्ति पर आधारित, शंकरदेव द्वारा प्रस्थापित

 ग्रंथ परंपरा

  • नंदिकेश्वर – अभिनयदर्पण
  • शारंगदेव – संगीतरत्नाकर
  • अभिनवगुप्त – अभिनवभारती (नाट्यशास्त्र पर टीका, रस की अनुभूति को केंद्रीय स्थान)

तुलनात्मक विश्लेषण

पक्ष नाट्यशास्त्र से पूर्व नाट्यशास्त्र के पश्चात
दृष्टिकोण धार्मिक, अनगढ़ कलात्मक, शास्त्रबद्ध
विधि लोक प्रेरित, परंपरागत अनुशासित, ग्रंथाधारित
सौंदर्यशास्त्र प्राकृतिक सांख्यिक, दार्शनिक
भाव सामूहिक आस्था व्यक्तिगत अनुभूति
प्रयोजन आराधना, अनुष्ठान सौंदर्य, संवाद, साधना

 निष्कर्ष

भारतीय नृत्य परंपरा का इतिहास केवल एक कलात्मक अनुशासन का इतिहास नहीं, बल्कि भारत के धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक चिंतन की गूढ़तम अभिव्यक्ति है। नाट्यशास्त्र ने इस परंपरा को एक शास्त्रीय आधार, तात्त्विक गहराई और सार्वकालिकता प्रदान की। यह स्पष्ट है कि नृत्य भारत में केवल देह की गति नहीं, बल्कि आत्मा की गति है "नृत्यते आत्मा प्रबुद्धः।"

ग्रंथ और संदर्भ सूची

  1. Natyashastra of Bharata, Translated by Manomohan Ghosh, Asiatic Society
  2. Abhinavabharati by Abhinavagupta
  3. Abhinaya Darpanam – Nandikeshwara
  4. Sangeet Ratnakar – Sharngadeva
  5. Kapila Vatsyayan – Traditions of Indian Classical Dance
  6. Raghavan, V. – Bharata’s Natyashastra and Its Tradition
  7. Reports and Papers from Sangeet Natak Akademi and IGNCA.                                                                                                   @Dr. Raghavendra Mishra JNU 

युगानुकूल अर्थ रचना: दीनदयाल का समरस गीत

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना धन ही जीवन का अंतिम लक्ष्य, ना भूख ही अंतिम सत्य,
दीनदयाल ने कहा युग को अर्थ हो धर्ममय पथ।
न पूंजीवाद की दौड़ हो, न हो साम्यवाद की पीड़ा,
भारत को चाहिए अर्थनीति, जो संस्कृति का हो हीरा।।

युगानुकूल अर्थ-रचना हो, जो समय के संग चले,
परंतु मूल जड़ों से जुड़कर, संतुलन की भाषा कहे।
न हो विदेशी ढांचे पर आधारित, न हो अंध अनुकरण,
बल्कि स्वदेशी भावनाओं से, हो नव भारत का सर्जन।।

ग्राम हो विकास की धुरी, न हो केवल शहरों का भार,
कृषक, शिल्पी, कारीगर सबको मिले स्वाभिमान और प्यार।
स्थानीयता में हो सामर्थ्य, लघु उद्योग हों बलवान,
तब जाकर अर्थ-व्यवस्था बनेगी भारत की पहचान।।

श्रम को मिले प्रतिष्ठा, न हो हाथों का अपमान,
हर परिश्रमी जन बने वहां, स्वावलंबन का महान गान।
न सिर्फ़ लाभ हो उद्देश्य, न हो केवल उत्पादन,
धर्म हो अर्थ का नियंत्रक, यही हो नीतिपथ का निर्धारण।।

धर्म हो अर्थ का दीपक, नीति हो नैतिक छाँव,
प्रकृति के संग मैत्रीपूर्ण हो, हर विकास की नाव।
ना दोहन हो जल-जंगल का, ना विनाश हो जीवन का,
हर संसाधन में दिखे दर्शन एकात्मता के मन का।।

न मनुष्य बने बाज़ार की वस्तु, न समाज बने दास,
मानवता की हो विजय जहाँ, वहीं अर्थ का हो प्रकाश।
न हो उपभोक्तावाद का जाल, न ही संग्रह की भूख,
संयम, संतुलन और सेवा यही है जीवन का सुख।।

समाज हो सहभागी, सत्ता हो सेवक धर्मशील,
और अर्थ हो साधन, न कि साध्य यही हो लक्ष्य प्रवीण।
दीनदयाल ने यही बताया, विकास हो होश में,
न हो विस्मरण संस्कृति का, न हो पतन जोश में।।

धन हो दया का साधन, व्यापार बने समर्पण,
उद्योग हों धर्म से बँधे, श्रमिक हों आत्मार्पण।
युगानुकूल हो अर्थविचार, जो समय को साधे,
लेकिन मूल न खो दे कभी, संस्कृति को बाँधे।।

चलो उसी पथ पर अब फिर से, रचें नव संकल्प-विधान,
दीनदयाल के स्वप्नों का हो, उन्नत भारत एक महान।
जहाँ अर्थ न हो केवल अंक, बल्कि मूल्य और मान,
जहाँ हो मानव पूर्णतः समरस, और राष्ट्र सदा सृजन प्राण।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

त्रयी सत्य की गूंज: व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठि

(पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानवदर्शन पर आधारित काव्य प्रस्तुति)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना व्यक्ति अकेला, ना समाज अधूरा,
ना परम सत्य बिना पथ पूरा।
तीनों बिंदु, तीन किरणें, एक ही दीप जलाएं,
दीनदयाल के दर्शन में, मानव धर्म जगाएं।

व्यष्टि: व्यक्ति की व्याप्ति


व्यष्टि वह बीज, जहां से जीवन का वृक्ष उगे,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चार धुरी जहाँ सधे।
न केवल पेट की भूख बुझे, न केवल बुद्धि में ज्वार,
मानव तभी पूर्ण कहलाए, जब आत्मा हो साकार।।

शरीर माँगे रोटी, मन माँगे नेह,
बुद्धि खोजे सत्य, आत्मा चाहे गेह।
इन सबका समन्वय ही मानव का मर्म,
दीनदयाल ने कहा यही है राष्ट्रधर्म।।

समष्टि: समाज का स्वरूप

व्यष्टियाँ मिलें, बने समष्टि यह है सहजीवन राग,
जहाँ जाति, पंथ, वर्ग न बाँटे, हर कोई में अनुराग।
परिवार से समाज तक, फिर राष्ट्र बने महान,
जहाँ सबका हो उत्थान, ना हो कोई अपमान।।

समष्टि ना भीड़ का नाम है, ना केवल शक्ति का जोर,
यह संस्कृति की बँधी हुई डोर, जिसमें बहे करुणा की भोर।
दीनदयाल कहते समष्टि वह तन है, व्यष्टि उसका प्राण,
दिशा वही दे सकती है, जो हो धर्मपरायण जान।।

परमेष्ठि: परम की प्रेरणा

परमेष्ठि वह शाश्वत सत्ता, जो सबका मूल आधार,
जिससे जीवन में बँधे नीति, धर्म, विवेक और प्यार।
ना वह केवल देवालयों में, ना ग्रंथों के वचन मात्र,
वह हर आत्मा में जाग्रत हो, यही है सनातन पात्र।।

धर्म न संप्रदाय बने, ना बाँटे वह नर-नारी,
धर्म दे जीवन की दशा, जो दे सबको जिम्मेदारी।
परमेष्ठि का पथ जब दिखे, समष्टि में बहे समरसता,
और व्यष्टि हो नतमस्तक यही हो पूर्ण एकात्मता।।


तीनों धारा जब बहती संग, तब जीवन सधता है,
व्यक्ति, समाज और परमेश्वर जब मिलें तो पथ बनता है।
दीनदयाल का एकात्म गीत, न भूले भारतवासी,
यह दर्शन है पथप्रदर्शक, यह संस्कृति की संजीवनी रासी।।

चलो चलें उस राह पर, जहाँ व्यष्टि की हो गरिमा,
समष्टि में बहे सेवा, परमेष्ठि से मिले अणिमा।
भारत फिर बने विश्वगुरु, दीनदयाल की राह,
जहाँ मानव न केवल जीव, बल्कि चेतना की चाह।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU