यह एक अत्यंत गहन, नैतिक, और सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत कहानी/नाटक “दया की कीमत” लिखी है। यह कथा मानव-स्वभाव, कर्मफल, और करुणा की सीमाओं को जिस गहराई से छूती है, वह नाट्य के रूप में अत्यंत उपयुक्त है।
यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है, प्रत्येक अंक मानवता, विवेक और कर्मफल के तीन स्तरों का प्रतिनिधित्व करता है।
🎭 नाट्य रूपांतरण
शीर्षक: दया की कीमत
लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
रूपांतरण: संवाद-प्रधान सामाजिक नाटक (३ अंक)
पात्रावली
1. डॉ. विधु रूपाशंकर — राज्य सरकार की संयुक्त सचिव, सुसंस्कृत, करुणामयी, परहितैषी, परंतु विवेकशील अधिकारी।
2. डॉ. मूर्खीता वास्तव — पूर्व कुलपति (Vice Chancellor), कभी ज्ञान और पद की शिखर पर रही, अब भिखारिन और चोर बनी स्त्री।
3. प्रोफेसर राघव मिश्र — डॉ. विधु रूपाशंकर के परिचित, बुद्धिमान, विवेकी और चेतावनी देने वाले मित्र।
4. विशाल मौर्य — चौकीदार।
5. वाचक (Narrator) — जो मंच के बीच में समय-समय पर कहानी का भावात्मक सूत्र प्रस्तुत करता है। (प्रो. सुशील कुमार मिश्र)
6. सहायक पात्र — पुलिस अधिकारी, कुछ नागरिक, भीड़ इत्यादि (संकेत मात्र)।
अंक – १ : भोर की मुलाकात
[मंच-सज्जा: एक सड़क का कोना, बगल में सरकारी क्वार्टरों की झलक। पीछे हल्की रोशनी, ओस की बूँदें झिलमिलाती।]**
वाचक (धीरे-धीरे):
भोर की मद्धिम रोशनी नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।
ओस की बूँदें जैसे प्रार्थना कर रही थीं — “एक और दिन, एक और मौका...”
इसी क्षण, डॉ. विधु रूपाशंकर अपने दफ्तर के लिए निकलने को तैयार थीं।
वह नहीं जानतीं — आज उनका सामना अपने ही अतीत के एक धुंधले चेहरे से होने वाला है।
[लाइट सड़क पर केंद्रित। एक वृद्धा सड़क किनारे बैठी है, कटोरा फैला हुआ।]
डॉ विधु रूपाशंकर (कार से उतरते हुए):
हे भगवान... यह कैसी दशा! यह चेहरा... कहीं देखा हुआ है...
(रुककर ध्यान से देखती हैं)
नहीं... असंभव... क्या ये वही हैं?
(धीरे से पास जाकर)
मैम... क्या आप डॉ. मूर्खीता वास्तव ही हैं?
वृद्धा (धीरे से सिर उठाती हैं):
(टूटी आवाज़ में)
हाँ बेटी... वही हूँ... पर अब उस नाम का क्या मूल्य?
अब तो लोग मुझे “भिखारिन” कहते हैं... कोई पहचानता नहीं।
विधु (भावविह्वल होकर):
मैम... आप तो विश्वविद्यालय की आत्मा थीं!
आपके व्याख्यान, आपकी आवाज़ आज भी याद है मुझे।
आइए मेरे साथ चलिए — अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।
वृद्धा (रोते हुए):
बेटी... तू देवी है... जिसने मुझे इंसान समझा।
तेरी छत के नीचे रह लूँ तो शायद कुछ पाप धुल जाएँ।
[दोनों मंच से धीरे-धीरे बाहर जाते हैं। पृष्ठभूमि में वाचक की आवाज़ गूँजती है।]
वाचक:
यही तो है करुणा का पहला रूप — जो किसी के पतन में भी मनुष्य की झलक देख लेता है।
परंतु कभी-कभी करुणा, विवेक की आँखों को ढँक देती है...
अंक – २ : दया का घर
[मंच: डॉ. विधु का घर। एक साफ-सुथरा बैठक कक्ष। वृद्धा को एक छोटे कमरे में रखा गया है।]
विधु:
मैम, यह आपका कमरा है। गरम खाना, साफ बिस्तर, सब तैयार है।
आप घर की सफाई कर लें, आत्मसम्मान भी रहेगा और आपका ध्यान भी रहेगा।
वृद्धा:
(कृतज्ञ भाव से)
बेटी... तूने मुझ पर उपकार किया है।
मैं तेरे घर को अपना मंदिर समझूँगी।
(रुककर) मैं लैट्रिन-बाथरूम भी साफ कर लूँगी, कोई आपत्ति नहीं।
वाचक:
दिन बीतने लगे।
जो कभी विश्वविद्यालय की अधिष्ठात्री थीं,
अब बाथरूम साफ कर रही थीं — और यही नियति का सबसे सूक्ष्म व्यंग्य था।
[मंच पर प्रवेश — प्रोफेसर राघव मिश्र।]
राघव:
(हँसते हुए) अरे विधु! पुरानी छात्रा अब बड़ी अफ़सर बन गई है!
(रुकते हैं, वृद्धा को देखते हैं)
यह आपकी गृह सहायक हैं? चेहरा बड़ा परिचित लग रहा है...
विधु:
जी हाँ, ये डॉ. मूर्खीता वास्तव हैं — कभी वैशाली विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर थीं।
राघव (चौंककर):
क्या कहा आपने? वही महिला?
वो जिसने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब किए थे?
जिसके कारण कितने छात्र बरबाद हुए?
विधु (हैरान):
क्या... ये सब सच है?
राघव (गंभीर स्वर में):
जी हाँ।
उनके पति ने आत्महत्या की, बेटे ने नशे में जान दी।
उन्होंने अपने ही परिवार को निगल लिया।
वह ज्ञान की नहीं, लालच की भूख में जीती थीं।
[वृद्धा यह सब सुन लेती हैं, लेकिन मौन रहती हैं। उनकी आँखों में एक जली हुई शर्म झलकती है।]
वाचक:
विश्वास की जड़ें तभी हिलती हैं जब सत्य और दया आमने-सामने खड़े होते हैं...
अंक – ३ : दया की कीमत
[मंच: रात का दृश्य। बाहर बारिश हो रही है। घर में अँधेरा।]
(संगीत: हल्की थरथराती ध्वनि, जैसे भीतर कुछ टूट रहा हो)
वाचक:
उस रात शहर में वर्षा थी...
और उसी वर्षा के शोर में विश्वास की आख़िरी साँसें घुल रही थीं।
[अचानक अलमारी की आवाज़। विधु जागती हैं, दौड़कर बाहर आती हैं।]
विधु:
कौन है वहाँ?...
(लाइट पड़ती है — दरवाज़ा खुला है, कमरा खाली)
हे भगवान!... अलमारी टूटी हुई... सब गहने, कागज़, पैसे — गायब!
[विशाल चौकीदार दौड़कर आता है]
विशाल:
मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह-अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी... मैंने देखा।
विधु (थकी हुई आवाज़ में):
(धीरे से बैठ जाती हैं)
मैंने उसे देवी माना... उसने मुझे ठगा।
(गहरी साँस) शायद ये ही मेरी गलती थी — मैंने दया को विवेक से ऊपर रखा।
[प्रकाश धीमा होता है — पुलिस अधिकारी प्रवेश करता है, हाथ में डायरी लेकर।]
पुलिस अधिकारी:
मेमसाब, वो महिला मृत पाई गई हैं... पुराने रेलवे स्टेशन के पास।
उनके पास कुछ चोरी का सामान और यह डायरी मिली है।
विधु (डायरी खोलकर पढ़ती हैं):
“मैंने सब खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान।
अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है।
शायद यही मेरी सजा है... या इससे बड़ी सजा अभी बाकी है।”
[सन्नाटा। वर्षा की आवाज़ बढ़ती है।]
विधु (आँखें बंद कर):
कितना विचित्र है — जब आत्मा भूख से मर जाती है,
तो अपराध ही उसका भोजन बन जाता है।
(धीरे से उठती हैं)
दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।
वाचक (अंतिम संवाद):
हर भूख पेट की नहीं होती — कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।
दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो,
नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है...
[लाइट धीरे-धीरे बुझती है, केवल वर्षा की ध्वनि गूँजती है। मंच अंधकार में डूब जाता है।]
नाट्य संदेश (थीम):
“करुणा तभी दिव्यता है जब वह विवेक से संचालित हो।
अन्यथा, वह अपराध के लिए अवसर बन जाती है।”
@Dr. Raghavendra Mishra